चोटी की पकड़–46
"तुम्हारा नाम क्या है?"
"हमारा नाम है दिलावर।"
बाज़ार में राजा की ही व्यवस्था थी। सामान वहीं रखा था। आदमी इधर-उधर टहलते थे। प्रभाकर को देखकर सब इकट्ठे हो गए।
एक दर्जी ने पूछा, "सिपाहीजी, आप कौन हैं?"
दिलावर ने कहा, "उस्ताद हैं, जैसे आप ख़लीफ़ा।"।
"गवैये हैं?" एक दूसरे ने पूछा।
"हाँ, नचनिये भी हैं, आजकल तो तबले का बोलबाला है। वह आ गई है न? बिरादरों की आमदरफ्त हो चली है। रात को ठनकेगा।"
ख़लीफ़ा झेंपे। पर बड़ों का प्रभाव रखते थे, खामोशी से रख लिया।
दिलावर प्रभाकर और उसके साथियों को लेकर एक दुकान में गया। इच्छानुसार भोजन कराया। जिस घर में सामान था, वहाँ विश्राम के लिए ले जाकर पूछा, "बाबू, आपका कौन-कौन-सा सामान है, हमें दिखा दीजिए। हम वक्त पर उठवा ले जाएंगे।"
दूसरे कमरे में सामान बंद था। ताली जिसके पास थी, वह आदमी बाहर था। प्रभाकर जानता था। कहा, "सामान की कोई चिंता नहीं, जब चलेंगे, सामान भी लिवाते चलेंगे।"।
दिलावर-नामधारी को टोह न मिली कि कैसा आदमी है, कैसा सामान है।
बारह
दूसरे दिन। जमादार जटाशंकर कुर्सी पर बैठे तंबाकू मल रहे थे। रुस्तम पहरा बदलने के लिए आया। जमादार को उसने देखा, पर मुँह फेरकर चल दिया, सलामी नहीं दी।,
जमादार ने पुकारा, "रुस्तम।"
रुस्तम का कलेजा धड़का। पर हिम्मत बाँधी और खड़ा हो गया।
"रुस्तम, क्या ग़लती की?" जमादार ने गंभीर होकर पूछा।
रुस्तम का पारा चढ़ गया। गुस्से से कहा, "हम इसका जवाब देंगे इसी कुर्सी पर बैठकर।" यह कहकर रुस्तम चला।
जमादार ने खजाने के सिपाही से कहा, "इसको पकड़ लो।"
तलवार निकालकर खजाने का सिपाही बढ़ा। रुस्तम को जैसे किसी ने बाँध लिया।
जमादार ने कहा, "तुम कितना बड़ा कसूर कर रहे हो, तुम्हारी समझ में आ रहा है? अभी मुआफी है। फिर उधर नहीं, इधर से निकल जाना होगा और हमेशा के लिए।''
रुस्तम के जी में आ रहा था, भगकर मालखाने के पहरे पर चला जाए और दो रोज किसी तरह गुज़ार दे, लेकिन पैर नहीं उठ रहे थे।
जमादार ने कहा, "इधर आओ।"
रुस्तम ने देखा, कदम जमादार की ही तरफ उठ रहा है, दूसरी तरफ नहीं। वह चला।
जमादार अपनी कोठरी में गए। रुस्तम भी पीछे-पीछे।